Monday, 15 March 2021

क्या युद्ध भी देश के लिए अच्छा हो सकता है?


माल्थस का मशहूर सिद्धांत है, “दुनिया में जनसंख्या चक्रवृद्धि से बढ़ेगी और उनके पोषण के लिए पर्याप्त भोजन नहीं बचेगा, बशर्तें कि युद्ध, बीमारी या नीतियों से जनसंख्या घटने लग जाए।”

यूरोप की जनसंख्या साफ हुई, इमारतें साफ हुई, फैक्ट्रियाँ ध्वस्त हुई। यूरोप में अब भी कुछ पुरानी इमारतें हर शहर में है, लेकिन जो हमें बहुधा नजर आती हैं, वे युद्ध के बाद बनी। आधुनिक तरीकों से। जैसे पुराने शहर पर बुलडोज़र चला कर नया शहर बसा हो। विध्वंस से सृष्टि हुई हो।

चमचमाती नयी मशीनें, नई चौड़ी सड़कें, नए ट्रेन, नयी बसें। युद्ध के बाद का यूरोप अपने सभी पुराने संस्करणों से कहीं बेहतर था। इतना काम था कि रोजगार ही रोजगार था। पश्चिमी जर्मनी के नए चांसलर इटली जाकर मुफ्त बसें चलवा रहे थे, दक्षिण इटली और ग्रीस के बेरोजगार बस भर-भर कर जर्मनी आ रहे थे।

माल्थस ने यह सुझाया था कि युद्ध के बाद जनसंख्या घटेगी, संसाधनों का अनुपात सुधरेगा, लेकिन यह नहीं बताया कि उसके बाद क्या करना है? अर्थशास्त्र अब पलट चुका था। जनसंख्या बढ़ाओ, बजट बढ़ाओ, रोजगार बढ़ाओ, उत्पादन बढ़ाओ, बाज़ार खोल दो, खूब खरीदो, खूब बेचो, खूब खर्च करो। बेल्जियम से नीदरलैंड सामान भेजो, जर्मनी से फ्रांस। पूर्वी जर्मनी से भाग कर लोग पश्चिम जर्मनी आना चाहें तो आने दो। कोई रोक-टोक नहीं। पूरा यूरोप ही एक बाज़ार बन गया था।

लेकिन, माल्थस होते तो पूछते कि जब सभी फैक्टरी में लग जाएँगे तो खेती कौन करेगा? भोजन कहाँ से आएगा? 

युद्ध से पहले यूरोप काफी हद तक कृषि प्रधान ही था। ऑस्ट्रिया में तो खेत ही खेत थे। दक्षिण इटली और फ्रांस भी खेती-बाड़ी में लगी थी। यहाँ तक कि पश्चिम जर्मनी की चौथाई जनसंख्या खेती करती थी। लेकिन, अब तो नहीं करती। क्यों? 

कृषि का भी मशीनीकरण हो गया। गाय दूहने के लिए पहले महिलाएँ लगी थी। अब महिलाएँ स्कर्ट पहन कर बॉन में नौकरी कर रही थी। डेनमार्क और नीदरलैंड जैसे देशों में पूरा दुग्ध-उत्पादन ही मशीनीकृत हो गया। अब गायों की कतार मशीन दूह लेती थी। खेती-बाड़ी का भी औद्योगीकरण हो गया। खेतों में बड़े सिंचाई के स्प्रिंकलर लग गए, तमाम जोतने, बुआई, कटाई, और संचय के उपकरण लग गए। सत्तर के दशक तक इटली में मात्र सोलह प्रतिशत कामकाजी लोग ही किसान बचे, जो पहले साठ प्रतिशत से अधिक थे।

भारत में भी औद्योगीकरण की हरी-सफेद क्रांतियाँ होती रही, अब पुन: कॉरपोरेट खेती के कानून आए हैं। लेकिन, इसका लाभ किन क्षेत्रों तक कितना पहुँचेगा, इस पर संदेह है। मसलन पूर्वी कम्युनिस्ट शासित यूरोप में भी औद्योगिक और सहकारी खेती हो रही थी, लेकिन उनका ध्येय किसानों की संख्या घटाना या शहरीकरण नहीं था।  वह औद्योगिक खेती तो किसानों पर जुल्म थी। अगर भारत को पश्चिम-पूर्व में बाँट दें तो कुछ ऐसा ही अंतर दिखेगा। पश्चिमी राज्यों की कृषि मशीनीकृत है, जबकि पूरब में अब भी बैल, हल, कुदाल और यहाँ तक कि रहट भी कहीं-कहीं दिख सकते हैं। उनको पूरी तरह बदलना ही भविष्य है, अन्यथा पश्चिम की कटाई करने पूरब के किसान ट्रेन भर-भर कर जाते ही रहेंगे। 

यूरोप में एक और बात हुई। जब खेती-बाड़ी से शहरी उद्योगों की तरफ प्रवास हुआ, तो महिलाएँ भी शहर आ गयी। युद्ध के बाद अगले दशक में ब्रिटेन की एक तिहाई कामकाजी जनसंख्या महिलाओं की थी। बाकी पश्चिम यूरोप में भी यही हाल था। हालांकि महिलाओं ने बच्चे भी खूब जन्म दिए, लेकिन गृहणी का कंसेप्ट घटता गया। वे अर्थव्यवस्था में खुल कर शामिल हुई। ज़ाहिर है, वे इन शहरों में पढ़-लिख भी अधिक गयीं, जो आगे जाकर नारीवादी आंदोलनों में सहायक हुई। 

एक युवा यूरोप सामने था। इसलिए नहीं कि बच्चे पैदा हो रहे थे। उनके बड़े होने में तो अभी वक्त था। दर-असल युद्ध में बूढ़े तो भारी मात्रा में मरे, लेकिन बच्चे और किशोर अपेक्षाकृत बच गए थे। बारह से अठारह वर्ष की जनसंख्या सबसे अधिक थी, और साठ से ऊपर की कम। कुछ-कुछ आज के भारत की तरह। कुल मिला कर कहें तो सरकार पर बोझ कम था, और उत्पादक और सर्विस सेक्टर के लिए जनसंख्या अधिक थी। ये सभी करदाता भी थे, और उपभोक्ता भी।

मगर। किंतु। परंतु। पूँजीवाद का बुलबुला तो अमरीका के स्थायी डॉलर के अनुसार चल रहा था। दो दशक बाद जब यूरोप अपने शीर्ष पर था, ढलान की ओर बढ़ने लगा। डॉलर के हिलते ही यूरोपीय मुद्रा धड़ाम से गिरी। 

कुछ पुराना ख़ामियाज़ा, कुछ नए जख्म। कुछ वियतनाम और कुछ इज़रायल। दुनिया में अब एक नयी ताकत जन्मी थी, जिसका केंद्र न यूरोप था, न अमरीका, न सोवियत। वह न डॉलर था, न सोना। वह था- तेल! 





धन्यवाद 🙏

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